Saturday 4 January 2014

कुरूक्षेत्र
गुरमीत कड़ियावली

मुझे समझ नहीं आता मैं क्या करूं ?

हर समय डर सा क्यो लगता हैं। किसी आन्तरिक अदृश्य भय से कापती रहती हूँ। औरतों को अपने मायके से सारी उम्र आत्मीयता रहती हैं, मुझे भी रहती थी। एक सप्ताह नहीं बीतने देती और मायेके जाने के लिए हठ करती रहती। कई बार रूठने का नाटक भी करती। अन्ततः मनीष को अकथ प्रयासो से जाने के लिए मना लेती थी। खुदा न करे बिजनेस के सिलसिले में अगर मनीष को समय नहीं होता, तो मैं ड्राइवर को लेकर खुद ही मायके चली जाती थी।
लेकिन अब.........
लेकिन अब तो मनीष मेरे मायके जाने का नाम भी ले, तो मुझे घबराहट सी होने लगती है। 7-8 वर्ष में इतना कुछ बदल गया, कि मायके जाने की मुझे खुशी रत्तीभर नहीं होती, कोई न कोई बहाना बनाकर इन्कार कर देती हूँ। मम्मी से मिलने को बिल्कुल दिल नहीं करता, लेकिन पापा को मैं, जरूर मिस करती रहती हूँ। पापा अकेले कैसे मिलेगे अगर पापा को मिलने जाऊगी तो.........................मम्मी भी होगी, यह सोचकर दिल बैठ जाता था और घबराहट सी होने लगती थी। ऐसा लगता था कि जैसे धड़कन रूक गई हैं।
मैं इन रिश्तों की बनावट में ही उलझी रहती हूँ।
माँ के साथ बने अपने रिश्ते को, मैं नया अर्थ देने लगती हूँ। इस नये रिश्ते की परिभाषा किसी शब्द कोष में नही मिलती। जब शब्दकोश लिखे गये थे, तब इन रिश्तों का कोई कन्सेप्ट नहीं था।
ये रिश्ते भी क्या चीज हैं ?
मनुष्य हर दिन नए रिश्ते बनाता है। मनुष्य के अन्दर यह प्रवृत्ति आदि काल से ही चली आ रही हैं। अगर यह प्रवृत्ति न होती.................................मनुष्य बच्चे पैदा न करता।
कौन चाहता हैं, कि मेरे बच्चे न हो........................ ।
बच्चों के फिर आगे बच्चे.....................
इसी तरह वंश चलता रहे............. पीढ़ी दर पीढ़ी।
मनीष भी तो यही चाहता हैं, कि अभी.................मेरे खून से भी कोई फल खिले जब यह सोचती हूँ, तो मनीष ठीक ही लगने लगता है।
कहाँ नही लेकर गया मुझे। महंगे डाँ के पास देशी, वैदों और हकीमों के पास। मन्दिर, गुरूद्धारों और जंगल पहाड़ियों में बैठे ज्योतिषों के पास....................वेष्णों देवी, गोपाल मोचन, रामतीर्थ कौन सी ऐसी जगह हैं, जहां नहीं ले गया घ्
उसकी सोच तो हर समय वारिश पैदा करने में लगी रहती हैं। शायद दुनिया के हर इन्सान को अपना वारिश चाहिए होता है।
अक्सर मैं यह सोचती हूँ कि केवल मर्द को ही वारिश की जरूरत होती है, औरत को नहीं.................. शायद नहीं। इसीलिए तो मैंने न तो कभी सुना और न कभी पढ़ा है, कि औलाद की खातिर किसी औरत ने दूसरी शादी की हो।
कितनी सहनशक्ति है इस औरत जात के अन्दर। शायद धरती माँ जितनी............।
धरती माँ के ऊपर यदि कोई मिट्टी का ढेर लगा देता हैं या कोई कुआँ खोद लेता हैं तो उसके मुंह से कभी आह भी नहीं निकलती।
आदमी तो भरा हुआ घड़ा है। जो जल्दी ही उछल जाता है। इसके अन्दर कोई सहनशक्ति नही हैं। मनीष के अन्दर सब्र कैसे होता ..।
शायद यह भी दुनिया के हर मर्द की तरह बेसब्र हैं।
मेरे से छोटी इन्दू पी.एम.टी. की कोचिंग लेने के लिए आई थी। इस शहर में एक से बढ़कर एक कोचिंग सेन्टर है। वह एक महीना मेरे पास रूकी। मेरे लिए वहीं एक महिना एक साल नहीं एक युग के समान बीता। मैने भगवान का नाम ले लेकर समय व्यतीत किया। मैं पछता रही थी कि इन्दु को कोचिंग लेने के लिए यहाँ क्यों बुलाया। क्या करती मैंने ही मम्मी डेडी को फोन किया था कि इन्दु को यहां भेज दे। यहाँ कि ब्रिलियेन्ट एकेडमी का अपना काफी नाम हैं। हर वर्ष उस एकेडमी के विद्यार्थी पी.एम.टी., आई.ए.एस. और पी.सी.एस. में चयनित होते हैं। पर मुझे लगता है, मैं जाल में खुद ही फस गई हूँ। मर्दों का क्या हैं। यह तो चिकने बर्तन के समान होते हैं। पता नहीं कब हाथ से फिसल जाए। जीजू....................जीजू..................करती, इन्दू मुझे जहर के समान लगती थी।
वह खिलखिलाकर मनीष के साथ हँसती तो मेरे हृदय में तीर के समान चुभ जाती। किसी भी बात को लेकर घर में हँसी मजाक चलता.................... तो मैं सिर्फ ऊपर-ऊपर से हँस देती। मैं अन्दर से बहुत डर गयी थी। मनीष भी इन्दू में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी दिखा रहा था। मनीष जो पहले देर रात काम से लौटकर नहीं आता, अब भी नहीं बजने देता था। कई-कई बार तो काम से छुट्टी भी मार लेता था। हर दिन घर में अच्छा-अच्छा फल, ड्राईफ्रूट और मिठाईयाँ आने लगी थी। मनीष का घर के प्रति बढ़ता प्रेम और नजदीकियां देखकर मैं अन्दर तक घबरा जाती थी। इन्दू की मौजूदगी घर में असहयोगी की तरह थी। टेस्ट खत्म होने के बाद इन्दू कुछ दिन और रहना चाहती थी, पर मैं तो अपने अन्र्तमन से यही चाहती थी............कि वह गाड़ी पकड़े और तुरन्त घर वापस चली जाये। मेरी हीन भावना ही मुझे खा रही थी, अगर मेरी जमीन के अन्दर बीज अंकुरित हो जाते तो शायद मैं इतना बहम न करती।
इन्दू के घर में रहने पर मुझे अजीब-अजीब और डरावने सपने आने लगे थे। मैं और मनीष पैदल जा रहे हैं..............दूर बहुत दूर................किसी घने जंगल में। अचानक आदिवासियों का झुण्ड मिलकर हमें घेर लेता हैं। मैं मनीष का हाथ कसकर पकड़ लेती हूँ। जंगली आदिवासी मनीष को मेरे से अलग करने लगते हैं। काफी जोर अजमाहिश के बाद, वह मनीष को मेरे से अलग कहीं दूर ले जाते हैं। मेरी अचानक चीख निकल जाती हैं। मैं हड़बड़ाहट करके जल्दी से उठ जाती हूँ, और मेरा शरीर पसीने से तर-वितर हो जाता है।
कभी सपना आता हैं...............मैं और मनीष पैदल जा रहे हैं। एक साधु हमें रास्ते में मिलता हैं वह साधु हमें उस दिशा की तरफ जाने को मना करता है। मनीष उसकी बात को अनसुनी करके मेरा हाथ पकड़कर उस दिशा की तरफ चलता रहता है। घाटियाँ और गुफओं में, किसी राजा के सिपाही हमें पकड़ लेते हैं। यह कोई राजा नहीं होता बल्कि एक जादूगर होता है। जादूगर मनीष को अपने जादू से तोता बनाकर पिंजरे में कैद कर देता है, इसी पिंजरे में पहले से अनेक आदमी तोते बने हुए कैद कर देता है। मैं चीखती चिल्लाती हुई पागल सी उस पिंजरे के आस-पास चक्कर लगाती रहती हूँ, और आखिर में हाफ कर गिर जाती हूँ। जादूगर की डरावनी हँसी वातावरण  को भंग करती है। मेरी अचानक चीख निकल जाती है। गहरी नींद में सोया मनीष हड़बड़ाहट से उठ जाता है। मेरे होठ शुष्क हो जाते हैं................... और गला सूख जाता है। मैं मुंह से कुछ बोल नहीं पाती।
पागलो की तरह मनीष की गोद में सिर रखकर रोने लगती हूँ। बस हर दूसरे चैथे दिन मेरे साथ ऐसे होने लगता हैं।
मनोविज्ञान के माहिर डॉ. कुन्तल कहते हैं कि मेरे अन्दर कोई अदृश्य भय घर कर गया हैं। मेरी तन्दुरूस्ती के लिए मेरे इस भय को दूर करना होगा। डाँ के अनुसार मैं अपने आप को घर में सुरक्षित महसूस नहीं करती हूँ। अदृश्य भय का कारण यही है। मुझे बाहर भेज कर डॉ कुन्तल और मनीष काफी समय तक बातचीत करते रहते हैं।
मनीष मुझे सुरक्षित करने के लिए अपनी बहुत सारी संपत्ति मेरे नाम करवा चुका है। अपने व्यापार की सारी कमाई भी मेरे हाथ पर लाकर रखता है। जैसे वह मेरे दिमाग के अन्दर यह बात बिठाना चाहता था, कि ये सब कुछ तुम्हारा ही है।
लेकिन मुझे तो लगता था कि धीरे-धीरे सब कुछ गुम हो रहा है।
अपने आन्तरिक भय के बारे में कुन्तल को क्या बताऊँ............... कि मम्मी और मनीष की बढ़ती नजदीकियां ही मेरे भय का कारण हैं।
मनीष जब मम्मी से मम्मी कहता है तो मम्मी शब्द उसके मुँह में ही दम तोड़ देता है। उसके चेहरे के हाव भाव बदल जाते हैं।
मुझे यह भी महसूस होने लगा जैसे मम्मी का मनीष के प्रति स्वभाव में भी काफी तब्दीली आ गई हो।
मम्मी भी जब मनीष को बुलाती हैं तो बेटाशब्द कहीं खो जाता है।
मैं कुछ और ही सोचने लग जाती हूँ। मुझे और मम्मी को पहली बार मिलने वाले अक्सर धोखा खा जाते हैं। हमें माँ बेटी की जगह बहने ही समझने लग जाते है। लोगो का यह समझना स्वाभाविक ही था..................क्योंकि हमारी आयु में.................१६- १७ साल का अन्तर था। मम्मी के बताने के अनुसार उसकी शादी १० वीं में पढ़ते ही हो गई थी, जहां वह मात्र १६ साल की थी। मनीष मेरे से साल बड़ा है।  इस प्रकार मम्मी और मनीष की आयु से सिर्फ १० साल का अन्तर हैं। वैसे भी मैंने कहीं पर पढ़ा था कि यदि एक दूसरे के प्रति पे्रम भाव हो तो आयु की कोई सीमा नहीं रहती। मुझे तो इस तरह लगता है कि जैसे १० वर्ष का अन्तर भी मम्मी और मनीष के नए रिश्ते ने खत्म कर दिया हो।
इस तरह से गैर कानूनी रिश्ते बनाने की बीमारी तो हमारे इस मध्यवर्गीय लोगो के अन्दर ही है। मम्मी जैसे लोग इस रिश्ते को सिवलाईज सोसाइटी का क्लाश कल्चर कहकर बड़ा गर्व महसूस करते हैं।
सिवलाईज सोसाइटी के मेम्बर होने के नाते मम्मी और मनीष अपने इस नए रिश्ते से काफी खुश हैं..................बेहद खुश हैं। मैं क्यूं उदास हूँ। मुझे इस नए रिश्ते से हिच किचाहट क्यों हो रही है, मैं ही क्यों अनसिबलाईज्ड हूँ। बार-बार मेरी अपनी क्लासमेट इन्द्रजीत, और उसके पति जमील आंखो के सामने आ जाते हैं। हमारी तरफ उनका भी कोई बच्चा नहीं हुआ। उन्होंने अनाथ आश्रम से कोई बच्चा गोद ले लिया था। कितने खुश और आनंदित हैं वे दोनों। जब भी उनको मिलती हूँ, तो मैं सोचती हूँ कि हम भी तो अनाथ आश्रम से बच्चा गोद ले सकते हैं। कानूनी तौर पर भी उस बच्चे को अपना नाम दे सकती हूँ। माँ के कालम में मेरा नाम ही तो भरा जाना था, और पिता के कालम में मनीष का। फिर मम्मी और मनीष को ऐसा करने की क्या जरूरत थी। संयोग से उस जिन दिन मम्मी साथ थी, जिस दिन डॉ. डेजी ने फाइनल चेकअप के बाद..........................‘‘नो हाप’’ कहते हुए निराशा के भाव से सिर हिला दिया था। अपनी दो ढ़ाई वर्ष लगातार कोशिश सफल न होने के कारण उसको काफी दुख हुआ था।
‘‘यू सुढ़ प्रेफर इन्वाइटोर फर्टेलाईजेशन................।’’ डॉ. डेजी ने मुझे और मनीष को ये बात  कहते हुए मम्मी की तरफ बड़े ध्यान से देखा था। सारे रास्ते में डाँ डेजी का मम्मी की तरफ इस भेदभरी नजरों से देखने का अर्थ तलाशती रही थी।
इस  तरह देखने का अर्थ जल्दी ही पता चल गया था। इस अर्थ को समझने के लिए मम्मी की सहेली डी.ए.वी गर्ल्स  कालेज की प्राचार्या विभा ने अपना योगदान दिया था। विभा बहुत बोल्ड लेडी हैं। किसी न किसी मामले को लेकर लेकर चर्चा में रहती है।
‘‘यू शूड यूज यूअर मदर’’ मैडम विभा ने मुझे बड़ी सहजता के साथ कहा था। मैं, मनीष और मम्मी रात के खाने के समय उधर गए थे। लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आया था।
‘‘यैस यूअर मदर केन डू इट..............स्टील शी इज यंग’’ विभा एक भेदभरी नजर मम्मी के पूरे शरीर पर डालती है। मनीष की नजरे मम्मी के शरीर पर और खास करके उसकी छाती पर घूमती देखकर मुझे काफी शर्म और गुस्सा आ रहा था। मुझे अभी भी मेडम विभा की बात समझ में नहीं आ रही थी, कि वह क्या कहना चाहती है..........................बस इतना ही समझी कि बात कुछ गंभीर हो रही है। हमार कुलीन वर्ग भी अजीब है, जो इस तरह की बातों करने के लिये अंगेजी का सहारा लेता है। शायद इस तरह की बाते मातृभाषा में हो ही नहीं सकती हों।
‘‘आंटी...............मैं विमल को खुद समझा दूंगा सारी बाते’’ मनीष ने प्राचार्य आंटी को ये बाते कही थी। मैं कितने ही दिन मैडम विभा की इन बातों के इधर उधर में अर्थ ढूढ़ती रही। उस दिन तक, मैं उलझन में रही जिस दिन तक मनीष ने मुझे इस बात का सही अर्थ नहीं समझा दिया।
‘‘.....................................विम। प्राचार्य आंटी के कहने के पश्चात् मैं और मम्मा ने, डाँ डेजी के साथ भी डिस्कस किया था। यू नो डाँ डेजी कभी गलत मार्गदर्शन नहीं करती उन्होंने मम्मी का चैकअप भी कर लिया है। ऐवरीथींक इज ओके दे केन सोल्व आॅवर प्रोबलम एज ए सेरोगेट मदर। हम अपने बच्चे के जन्म के लिए मम्मा की कोख इस्तेमाल कर सकते है। दे केन गीव अस बेबी।’’
रात के समय बल्ब की रोशनी में भी मनीष का चेहरा सफेद दिखाई दे रहा था। गहरी सर्दी में भी मनीष के चेहरे पर पसीने की बूंदे चमक रही थी।
‘‘...................इफ यू डोन्ट माइन्ड...........वी केन.................घ्श्
‘‘जब तुम्हे कोई ऐतराज नहीं.....................मम्मा को कोई ऐतराज नहीं................तो मेरे माईन्ड करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है घ् फिर आपने इरादा भी तो बना रखा है...................।’’ मैंने बहुत शान्त चित होकर उत्तर दिया.................पर अन्दर से शान्ति नहीं मिल रही थी।
फिर मनीष कितनी ही देर तक बताता रहा...................आर्टीफिशयल तरीके से किस तरह उसका वीर्य मम्मी की कोख में रखा जायेगा। मम्मी की कोख से पैदा होने वाला बच्चा उनका अपना खून होगा। इस बच्चे के साथ जो हमारी आत्मीयता बनेगी...............वो अनाथ आश्रम से गोद लिये बच्चे के साथ कैसे बन पायेगी ......अब जब मम्मी की कोख में मनीष का अपना खून पल रहा है......................तो मुझे ज्ञात होता है, मेरे पास से तो सारे रिश्ता गुम हो गये हैं।
मैं काफी उखड़ी-उखड़ी से रहने लगी हूँ। गुमसूम सी।
मनीष आजकल काफी खुशी महसूस करता है।
प्राचार्य मैडम भी आजकल फिर जोरदार चर्चा में हैं।  उसकी काले शीशों वाली पैजेरो गाडी की पिछली सीट के उपर उसके साथ, उससे 20 साल छोटा एक विघार्थी बैठता है।
प्राचार्य विभा मम्मी की तारीफ करते हैं, ‘‘आप बच्चों की खुशी के लिए इतना सेकरीफाईज कर रही है दिस इज दा ग्रेट कोन्ट्रीव्यूशन फोर ओवर सोसाइटी।’’
मैं इस मध्यम वर्ग के खोखलेपन पर सोचकर अन्दर ही अन्दर हस पड़ती हूँ। इस वर्ग में कुर्बानी के भी अपने ही मायने हैं। मेरा दिल करता हैं कि मैं प्राचार्य को कहूँ कि स्टुडेंट को गाड़ी में घुमाकर कुर्बानी तो आप भी बहुत बड़ी दे रही हो।
‘‘रीयली शी इज ग्रेट वुमेन। शी बीहेवज लाईफ ए फ्रेड............नाट लाइक ए मदर इनला’’ मनीष अक्सर मम्मी की तारीफ में इस तरह के वाक्य कहता रहता है। मुझे खीझ सी होने लगती है उसके इन शब्दों से, मनीष के चेहरे से प्यार की परत बनावटी सी लगती है जैसे वह नाटक कर रही हो।
मम्मा भी प्राचार्य विभा की अक्सर तारीफ करती रहती है। ‘‘.................ग्रेट लेडी...............सारे समाज को वह अपनी जूती की नोक पर रखती है................वह अपने ढंग से जिन्दगी जीती हैं अपना रास्ता आप चुनती हैं।’’
प्राचार्य विभा अपने नये दर्शन के बारे में अक्सर कहती हैं ‘‘युगो से आदमी औरत को यूज  करता आया है.............नाव वी आर यूजीज ए मैन’’ वह विवाह नाम संस्था का भी मजाक उडाती हैं। वह अक्सर कहती हैं ’’बच्चे की जरूरत महसूस हुई तो मैं वीर्य बैंक से वीर्य लेकर बच्चा पैदा करूंगी.............इस तरह शादी करके सारी उम्र गुलामी करने का क्या अर्थ हैं।’’
मैं अपनी हालत संबंधी अनुकरनिका को फोन करती हूँ ‘‘तुम अभी भी 18 वीं सदी में जी रही हो। दुनिया कहां की कहां चली गई है................घ्श् उसका यह जबाव सुनकर मैं पत्थर की मूर्ति सी बन जाती हूँ। यह वही अनुकरनिका कह रही हैं जो कालेज में स्टुडेंट लीडर होती थी, और औरत की आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। यह वही अनुकरणीका है जो औरत की आजादी की बड़ी-बड़ी बाते करती थी।
मनीष हर समय घर में आने वाले नए मेहमान की बातें करता रहता है।
मुझे पल-पल अपनी मौजूदगी नष्ट होती नजर आ रही है।
मैं आने वाले बच्चे के साथ अपने रिश्ते को सोचती हूँ।
फिर मनीष और मम्मी के बने नए रिश्ते के बारे में सोचती हूँ।
फिर मम्मी और अपने नए रिश्ते के बारे में सोचती हूँ।
आजकल मुझे अजीब तरह के दौरे पड़ने लगे हैं। जीभ तलवे के साथ चिपक जाती हैं। आंखे बाहर निकल जाती हैं। कितने-कितने देर तक बेहोश रहती हूँ................ बेहोशी में बड़ बडाती रहती हूँ। सुनने वाले बताते हैं कि मैं कूरूक्षेत्र-कुरूक्षेत्र चिल्लाती हूँ। डॉ. कुन्तल ने मुझे डी.एम.सी. के माहिर मनोरेगी डॉ. को दिखाने के लिए कहा है।
मैं क्या हूँ...............कैसे समझाऊं सभी को................ कि मुझे किसी डॉ. को दिखाने की जरूरत नहीं हैं.................।

अनुवादक : सुरजीत सिंह वरवाल
विभाग  : हिंदी
डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालयसागर मध्यप्रदेश
दूरभाष : +९१९४२४७६३५८५ / +९१९५३०००२२७४ 

Friday 3 January 2014

चीख

                                                                                                 गुरमीत कड़ियावली
                     मैंने एक बार नहीं अनेक बार सोचा है कि इस मूर्ख परिवार के सामने दीदी और जीजा जी से सम्बन्धित कोई बात नहीं करनी फिर भी कोई न कोई बात स्वभाविक हो ही जाती है। आज भी मैंने जीजा कुलवन्त के बारे में पंजाब सर्विस कमीशन की तरफ से कालेज लेक्चरार चुने जाने की खबर बतायी थी। दरअसल  जब से जीजा जी की सलेक्शन सम्बंधित दीदी का फोन आया था, मैं पूरी तरह से खुशी से आन्तरिक और बाहरी सराबोर हो गयी थी। जल्दी से जल्दी यह खुशी कि खबर सारे पंजाब को बता देना चाहती थी। इसी खुशी से मैंने यह खबर हरजीत को सुनाई थी।
“......कुलवन्त को तो यह लेक्चरशिप मिल ही जानी थी।हरजीत की ठण्डी सांसो में मानो जान ही नहीं थी। सरकारी नौकरियाँ मिल ही जाती हैं।
......बात तो यह है कि सरकारी नौकरियाँ तो रह ही रिजर्व कोटेके लिए गयी है।
सास और ससूर के यह शब्द मेरा हृदय चीर गए थे। उन्होंने रिजर्व कोटेवाले शब्द पर विषेश तौर पर जोर दिया था। इस तरह कहने से मुझे ऐसा महसूस हुआ था, जैसे किसी ने मेरे मुँह में कुनेन की गोलिया डाल दी हो।
.....रिजर्व कोटे वालों को कौनसा बिना पढे नौकरियाँ मिल जाती हैं? बिना डिग्री किए ? उसने फस्ट डीविजन में एम.ए. पास की .....एम. फिल की और फिर यु. जी. सी. नेट पास किया। उसके बाद पी. पी. एस. के टेस्ट और साक्षात्कार पास किए .........यदि मान भी लिया जाए कि रिजर्व कोटे में कुछ नम्बरों की छूट हुई पर इसका मतलब यह तो नहीं हैं कि सरकार अनपढ़ को ही ऐसे अधिकार सौंप दे। मैं गुस्से से भर गयी थी कहना मैं भी चाहती थी कि पिछले पाँच वर्ष से मेहनत करने के बावजूद भी आपके लाडले से नेट पास नहीं हुआ, और अगर जीजा कुलवन्त व्याख्यता बन गए हैं तो आपको जलन क्यों हो रही हैं, पर यह शब्द मैंने अपने कंठ में ही दबा लिए थे। दरअसल मैं यह भी समझती थी कि इस परिवार को हरजीत की बार-बार असफलता उतना ही दुखी नहीं करती, जितनी कुलवन्त की सफलता दुखी करती हैं।
    ..... मैंने कब कहा कि तेरे जीजा जी अनपढ़ और ग्वार हैं...? “हरजीत के इन शब्दों में छुपा हुआ जहरीला व्यंग्य समझ में आता है।
......हाँ इन्टेलीजेन्ट है तभी तो नौकरियाँ उनके आगे पीछे घूमती हैं...।’’
    ...... हाँ जी, इन्टेलीजेन्ट करके ही तो ढुढाँ है तेरी दीदी ने। सास ससुर के मुहँ से फिर आग निकलती हैं मैं तड़फ कर रह जाती हूँ। इस परिवार से बहस करने का क्या फायदा इनके मुँह से जली कटी बातें और दिल जलाने वाली निकलेगी। मैं रसोई में जाकर काम करने लगती हूँ। सास और ससुर अभी भी कान खुजला रहे हैं। मुझे पता नहीं चलता कि कब सास और ससुर का चेहरा मास्टर ढण्ढ और साईंस मास्टर पवित्रकौर की तरफ हो जाता है, पवित्रकौर के बारें में बात करने लगते हैं।
    ......यह जो सरदार सुरेन्द्र सिंह सरोवा साहब बनकर कुर्सी पर चैड़ा हुआ बैठे हैं, यह रिर्जेवेशन कोटे में होने के कारण लग गया, और अब हैडमास्टर बनकर हमारे ऊपर हुकुम चलाता हैं। इसको कोई मजदूरी करने नहीं ले जाता था नौकर नहीं रखता था..........कम से कम मैं तो नहीं रखता । मास्टर ढण्ढ का ताँबे जैसा रंग और भी गहरा हो जाता।
    .............दोनों साठ हजार से उपर कमाते हैं.... गाँव में टूटा-फूटा घर होता था.......अब शहर में प्लाट लेकर बैठे हैं, और कहते हैं शहर में बच्चों की शिक्षा के लिए कोठी डालनी है। कोठी डालकर बाहर नेम प्लेट लगायेंगे हैडमास्टर सुरेन्द्र सिंह सरोवा एम. ए., बी. एड.............चमालडी..........।पवित्र नाक को सिकोड़ते हुए बार - बार अपने गात्रे को ठीक करती रहती हैं। मुझे उसके नाम पर हँसी आती रहती है। मुझे गाँव वाली दानों याद आ जाती है कहा करती थी, सारे गाँव की जूठ नाम पवित्र सिंह, कहते थे डरता तो गीदड़ से है और नाम रखते है दिलेर सिंह.......इसी तरह वह कितने ही नाम गिना देती थी।
  .....ढण्ढ साहिब, हैड साहिब ही नहीं हम सभी की भी नौकरियाँ रिजर्वेशन के कारण ही लगी हैं। आपको भी अच्छी तरह पता है शिक्षा मंत्री अपने ही क्षेत्र का था, नही तो जैसे नम्बर अपने बी. ए., बी.एड में हैं किसी ने मास्टर तो क्या चपरासी भी नहीं लगाना था। मेरी खरी - खरी बाते सुनकर ढण्ढ मास्टर तिरछी नजरों से देखने लगता था। दरअसल मैं और राजेश ढण्ढ , पहले बी.ए.के समय और फिर बी. एड. के समय क्लाशमेट रहे हैं। ढण्ढ स्कूली पढ़ाई के समय से ही बेक बेचर था। बी. एड. का चाइल्ड साईक्लोजी (बाल मनोविज्ञान) का विषय तो उसने तीसरी स्पली में पास किया था।
    ’’......मैडम परमीत की तो हैडसाहिब जैसे कोटे वालोके साथ काफी हमदर्दी है।ढण्ढ ने अजीब ढंग से व्यंग्य किया था। मुझे लगता था ढण्ढ हमदर्दी की जगह नजदीकी रिष्तेदारी बनाना चाहता हो।
    .........इसकी कोई खास वजह ही होगी।पवित्र अपना गात्रा ठीक करती हुई आँखों में हल्का सा मुस्कराती है।
    ’’......वजह तो मैडम परमीत ही बता सकते हैं...।पवित्र और ढण्ढ मास्टर की आँखें आपस में मिलती हैं। मैं बताना तो बहुत कुछ चाहती, पर क्रोध को अन्दर ही अन्दर पी जाती। सोचती कि इंसानियत हीन लोगो के मुँह क्यों लगे, नहीं तो उत्तर मेरे पास बहुत थे।
    ’’........उत्तर तो मैंने हरजीत को दिया था जब उसने कहा थापरमीत अपनी दीदी को बोले की कागजो में हमारा बेटा गोद ले। रिजर्व कोटे में आने के कारण उसको भी अच्छे कोर्स में दाखला मिल जायेगा।
“............सरदार हरजीत सिंह भुल्लर साहिब ........................ रिजर्वेशन जन्म आधारित हैं। उस नीची जाति में जन्म लेने के कारण जो मानसिक और सामाजिक पीड़ा की जलीलता आप जैसे लोगों से उसके प्रत्यूतर में मिलता है ‘’रिजर्व कोटा’’। यह सुनकर हरजीत का चपटा नाक और भी चपटा हो गया था।
’’................तुम तो सीधी बात का भी टेढ़ा अर्थ निकाल लेती हो...............मेरा मतलब वह नहीं हैं जो तुम समझ रही हो।’’
’’................जनाब अपने जैसे लोगों की यह सीधी बाते, अकसर सीधी नहीं होती हैं।’’ तुम्हारे जैसे लोगों की जगह पर मुझसे अपने जैसे लोगों को कहा गया था। अचानक ही मेरे से बहुत बड़ा सच बोला गया था। यह सच सिर्फ बड़ा ही नहीं बहुत कड़वा भी था। मेरे अपने लिए भी बहुत कड़वा। दीदी परम ने एम. ए. बी. एड पास कर ली थी, तब मैने विश्वविद्यालय के पंजाबी ओनर्स बी.ए. द्वितीय वर्ष में प्रवेष लिया था। दीदी और जीजा कुलवन्त के बीच चल रहे बारे में सिर्फ मुझे मुझे ही पता था। इस बात को लेकर दीदी के साथ मेरी नोक झोंक हमेषा चलती ही रहती थी। मुझे भी ऐसा लगता था जैसे बहुत बड़़ी अनहोनी घटना होने जा रही हो। दीदी का फैसला मुझे किसी भी तरह सही नहीं लगता था। जीजा कुलवन्त के बारे में सोचते ही हमारे खेतों में काम करने वालों नौकरों के अन्दर धसे हुए चेहरे मेरे सामने आ जाते। उनके मैले कुचेले कपड़ो की बदबू मेरे नाक में चढने लगती मैं उम्र का लिहाज किए बिना ही दीदी को खरी खोटी सुनाने लग जाती।
’’......इश्क ने तेरी आँखों पर पट्टी बान्ध दी है। तुम्हें अच्छे बुरे की पहचान नहीं रही।’’
’’कुलवन्त में बुराई क्या है ? पढ़ा लिखा नहीं ? लूला लगंड़ा है। ? कुष्ठ रोगी है ? उसका सारा परिवार नहीं पढ़ा लिखा ?’’ दीदी जवाब की बजाये उल्टा प्रशं करती थी।
’’समाज में उसके रूतबे का पता है तुझ े? जिनका समाज में कोई रूतबा न हो व लंगडे़ लूले ही होते है।’’
’’............ क्या हुआ है उसके रूतबे को ? कोई चोर डाक है ? ’’
’’बहुत ऊँचा रूतबा है कुलवन्त का। वही रूतबा जो अपने नौकर गन्ते का है। मेरी इस बात की पीढ़ा से दीदी की आँखों से आँसु छलक पड़े थे।
’’अपने घर के पषुओं की नाँद के पास पड़े हुए गन्ते नौकर का कटोरे के बारे में तो तुम्हें पता ही होगा ...अब तुं सोचती है कि गन्ते नौकर का वह कटोरा उठाकर अपने आंगन में सजा ले।
’’इन्सान तो सारे एक जैसे होते है।’’
’’किताबो ने तेरा दिमाग खराब कर दिया है तूं पढ़ - पढ़कर पागल हो गयी है। अगर सारे इन्सान एक जैसे होते तो ये जात - पात जैसी चीजें नहीं बनती थी तुम उल्टी गंगा बहाने को लगी हो...।’’ क्या बोलती दीदी मेरी दलीले उसके सामने कहाँ चलती? तर्कबाजी तो वहाँ चलती जहाँ कोई तर्क सुनने वाला यहाँ तो मैं जातिवाद का पल्लू पकड़़कर उसकी बात को षुरू से खारिज कर बैठी थी। तैयार हो ही जैसे मास्टर ढण्ढ मैडम पवित्र और उसकी मण्डली हर बात को रदकर देती हूँ। अगर हैड कहे कि आज बुधवार है तो ये मण्डली कहेगी नही आज शूक्रवार है हैड उसके जैसे और मास्टरों को नीचा दिखाकर इनको गहरी मानसिक तस्सली होती है। और तो और यह मण्डली हैड जैसों की जातियाँ वृक्षों में भी टटोलती रहती हैं। अपने साथी अध्यापकों के नाम भी जाति के आधार पर ही रखे हुए हैं। जगदीश राज शर्मा को पीपल तरखान जाति के मास्टर दयाल सिंह को तेसा मास्टर दर्जी बियादरी के गुरूनेक सिंह मास्टर को सुईधागा और मजहबी जाति के निर्मल को उसकी पीठ पीछे बबूल कहते हैं। ढण्ढ अपने आप को शहतूत और पवित्र को टेहनी कहते है। हैडमास्टर की पीठ पीछे ठक - ठक शब्द का उच्चारण किया जाता है। जब कभी साहिब फ्री बैठी इस मण्डली को कोई काम धन्धा बोल दे, या क्लाष एटेण्ड करने को कह दे तो सारी मण्डली उनके खिलाफ आग उगलने लगती हैं।
’’ साली जात की टागें सारा दिन थड़ी से बाहर नहीं निकलेगी। दिन ठक- ठक करने ताना बुनते रहना था। अब हमारे ऊपर हुकुम चलाता हैं। साली आजादी तो हमारे लिए राख ले आई, बगल की जूऐं सिर पर चढ गयी। पता नहीं साली सरकार ने इनमें क्या देखा है।’’
ढण्ढ मण्डली की तरह मैंने भी ऐसे ही कहा था जब दीदी ने घरवालों के सामने दबे स्वर में अपनी पसन्द के लड़के कुलवन्त के साथ शादी करने की इच्छा जाहिर की थी। घर में तो जैसे भूकम्प ही आ गया हो ।
’’परम तो ऐसे जात पांत के पीछे लगी फिरती है। इसने पता नहीं उस लड़के में क्या देखा रंग तो ऐसा है तवे के साथ शर्त लगी हो इसकी।’’ कुलवन्त का सांवला रंग भी मुझे काला सा लगता था।
......उसमें क्या नहीं है ? ’’
......’’ बेटा जवानी में सौ बातें हो जाती है ऐसे दिल पर नहीं लगाते जितनी उसके साथ बीत गयी ठीक है अब जवाब दे दे उस लड़के को मैने एक लड़का देखा है तेरे लिए नोटों के थैले भर-भर लाता है। नहरी विभाग में ओवरसीयर लगा हुआ है अभी तीन साल नहीं हुए डयूटी लगे को, घर षानदार बना लिया लेन्टर ही लेन्टर ......चमकीली फर्श । मशीनों की .........गिनती नहीं होती सुविधानुसार हर छोटी से छोटी चीज मौजूद हैं। जैसे बोलोगी उसी तरह से तेरी शादी करेंगे। छोड़ उस नीची जाति के लड़के को।
अम्बाले वाली बुआ ने परम को अपना फैसला बदलने के लिए जोर डाला था । दूर के रिश्तेदारों ने भी अपना - अपना जोर लगाया था। चाचा और ताऊ के लड़कों ने तो धमकी वाला हथियार भी प्रयोग करके देख लिया था। फिर भी टस से मस नहीं हुई थी। उपना फैसला बदलने के लिए दीदी को शारीरिक कष्ट दिया जा रहा था। दीदी की हालत विचारणीय बनी हुई थी। दीदी की शादी का सबसे ज्यादा विरोध मैं ही कर रही थी क्योंकि विरोध के पीछे भी मेरा अपना स्वार्थ था। मैं यह सोचती थी कि अगर दीदी ने अपनी मर्जी से शादी करवा ली तो मेरा क्या होगा। हो सकता है घरवाले मुझे भी यूनिवर्सिटी से हटाकर घर में बैठा लें। उन दिनों मैं खुद ही हरजीत के चक्कर में उलझ चुकी थी। हरजीत से बिछुड़कर मैं जिन्दगी जीने के बारे में सोच ही नहीं सकती थी। पता नहीं मेरे दिमाग में उस समय यह सोच क्यों नहीं आई कि यदि मैं हरजीत के बिना नहीं रह सकती तो दीदी कुलवन्त के बिना कैसे रह सकती है। कुलवन्त उस समय कुलवन्त दर्दी होता था जिसके चर्चे विश्वविद्यालय के गलियारों में गुजां करते थे। जिसकी कविता अखबारों, मैग्जीनो, से लेकर बड़े  - छोटे कवि दरबारों में वाह वाहि लूटने लगी थी। कुलवन्त जीजू उस समय दीदी को लम्बे  - लम्बे पत्र लिखा करता था। बड़ी ही प्यारी लेखनी में उस समय मैंने, दीदी और कुलवन्त के सम्बन्धों का खुलकर विरोध शूरू नहीं किया था। कुलवन्त जीजा विश्वविद्यालय के हॉस्टल में आ जाते थे। मुझे भी दो तीन पत्र लिखे थें कविता में ही जैसे उसके समाजिक सच्चाई और मनुष्य की उत्पति सम्बन्धी समस्त इतिहास लिख दिया है। मैंने कई-कई बार पढ़ी थी । सचमुच मैं इन कविताओं के षब्दों में खो गई थी। मेरा दिल तो कुलवन्त और दीदी के रिश्ते का समर्थन करने के लिए करता था। लेकिन मेरा दिमाग सचेत होकर विरोध करने को कहता था। जीजा के जादुई शब्दों के जाल से बाहर निकलकर ,पत्रों को फाड़कर डस्टबीन के हवाले करके और दीदी का खुलकर विरोध करना शूरू कर दिया था। मैने उस समय कुलवन्त जीजा को बड़ा कठोर शब्द भरा पत्र भी लिखा था।
’.................जीजु कुलवन्त आप दीदी के साथ जिस घर की कल्पना कर रहे हो, ऐसे घर जब टूट जाते हैं तो इनका मलबा उठाते  - उठाते कई युग लग जाते है।’’ कितनी गलत साबित हुई हूँ। मलबा तो मैं उठा रही हूँ। दीदी परम और जीजा कुलवन्त के घर की नींव तो बहुत मजबूत है।
दीदी परम का विरोध करते हुए मैं उनके अहसानों को भी भूल गयी थी। उसकी बदौलत ही मैं विश्वविद्यालय आई थी। मेरा प्रवेश करवाने के लिए दीदी ने रात-दिन एक कर दिया था। वैसे भी किसी के एहसान को याद कौन रखता है। रात ये गुरूसीमरत, हैड साहब के साथ सबसे ज्यादा नफरत करती है। जब गुरूसीमरत के मम्मी पापा की सड़क हादसे में मृत्यु हुई थी, तब इसी हैड साहब ने 15 दिन ऐडजेस्ट किए थे। बाद में भी एक महीना क्लाष नहीं लेने दी थी। हैड साहब खुद क्लाष लेते रहे थे। अब जब भी हैड साहब के बारे में बात चलती है तो यही गुरूसीमरत सबसे ज्यादा बोलती है। हैड साहब की जुबान तो सारा दिन ठक - ठक करती रहती है पढ़ाओ - पढ़ाओ इसके अलावा कोई अच्छी बात ही नही आती। पढ़ाने को तो बिल्कुल दिल नहीं करता। किसको पढ़ाये ? स्कूल में तो कोई ढंग का बच्चा रही ही नहीं गयी मुझे तो दुर्गन्ध सी आती रहती है। अब इन कीड़े मकोड़े के साथ मगज खपाई करते रहो। पढ़ा - पढ़ा कर बना दो इनको अफसर , हैड साहब की तरह हमारे ऊपर ही ठक -ठक करने के लिए’’
कोई न कोई बात तो घर के अन्दर भी हो जाती है’’ परमीत हम तो इन नीची जाति के लोगो को घर के पास भी नहीं भटकने देते ...............तेरी दीदी तो पता नहीं कैसे .................? कुलवन्त के रिश्तेदार भी तो आते होंगे, उनसे दुर्गन्ध नहीं आती ? मानसा की तरफ विवाहित हरजीत की दीदी ने एक बार कहा था जिसका घरवाला तम्बाकु खाता है और जिसकी मुँह से हमेशा लार गिरती रहती है। मेरा मन तो किया कि कहुँ ’’ तुझे अपने घरवाले से दुर्गन्ध नहीं आती ? लेकिन मैं रिष्तो की सीमाओं में घीरी होने के कारण कुछ बोल नहीं पायी।
हरजीत की बड़ी बहन प्रकाश जिसका खुद दो बार तलाक हो चुका है और अब तीसरी बार जिस घर में गयी है वहां भी महाभारत किया हुआ है। बातों - बातों में एक दिन कह रही थीं परमीत तेरी दीदी और कुलवन्त की ज्यादा दिनों तक निभेगी नहीं ..... ऐसे रिश्ते ज्यादा दिनों तक नहीं चलते होते मैं उसके मुँह की तरफ देखती रह गयी थी। कितनी बड़ी बात उसने सहजता के साथ कह दी थीं मेरा मन किया कि उसको करारा सा जवाब दूँ कि अगर ना निभेगी तो तेरी तरह दूसरा और फिर तीसरा विवाह कर लेगी। दिमाग कुछ सोचकर चुप रह गया। हम भी तो कभी सोचते थे कि एक साल मुश्किल से दीदी का घर । चल पायेगा। टूट जायेगें दोनों ...।
पर दूसरी तरफ हम हैं ...मैं और हरजीत ...। हम जुड़े ही कब थे?
....बस इसी तरह बहुत से लोग सोचते हैं। हैड साहिब सुरेन्द्र सिंह के बारे में भी यही सोचते थे जब वे पदोन्नत होकर नए - नए स्कूल में आए थे। उस समय पवित्र, गुरूसीमरत और ढाण्ढ साहब जैसे लोगों ने कहा था अफसरी करनी इन लोगों के बस की बात नहीं ........................अफसरी तो कोई घातक जट ही कर सकता है। ऐसे ही हर कोई जात का अफसर बन रहा है। मुश्किल से एक वर्ष निकालेगा............. छोड़कर भाग जायेगा........।’’ मेरी तरफ ये मण्डली भी गलत साबित हुई। हैड साहब भागकर कही नहीं गए। चार वर्ष हो गए इस मण्डली को विरोध करते हुए इसके बावजूद भी हैड साहब की अफसरी चल रही है मण्डली का वश नही चलता।
 अन्दर ही अन्दर जलती और सड़ती रहती है।
’’ रिर्जेवेशन ने तो इस देश का सत्यानाश कर दिया हैं ! योग्यता देखता ही नहीं ............बस कुड़ा ..........कबाड़ उठा उठाकर कुर्सियों पर बिठा रहें है हैड साहब पता नहीं मण्डली का मुँह तोड़ जवाब क्यों नहीं देतें। मुझे याद है, विश्वविद्यालय में एक बार योग्यता बनाम रिर्जेवेशन विषय की डीबेट हुई थी। उस समय भगवन्त नाम के लड़के ने बहुत कठोर जवाब दिया था।
    जब रामायण लिखने की जरूरत पड़ी तो वाल्मिकी आगे आये। महाभारत लिखते समय वेद व्यास के बिना बात नहीं बनी। जब संविधान लिखने की आवश्यकता पड़ी तो तब यही लोग काम आए। बताओ योग्यता सिद्ध करने की अभी जरूरत बाकी है? उनकी इन दलीलों का जवाब किसी को नही आया था। बस इधर-उधर की बातें कर रहे थे।
    जवाब तो मेरी दलीलों का भी पवित्र और ढण्ढ मण्डली के पास नही होता थ। इस मण्डली की योग्यता बोर्ड कक्षाओं के परिणाम ही बता देते है इसके बावजूद भी इनको शर्म नहीं आती। जबकि ‘‘सरकार ने पास होने के लिए 33 प्रतिशत नम्बरों की सीमा रखी है, और हमारे तो फिर भी 45 प्रतिशत है।’’ यह बातें करके सभी खिलखिलाकर हंसते है। मैं कई बार कड़वी-कड़वी सुना देती हूँ।
    गाँव की दुर्दशा तो गाँव में लगे हुए गोबर के ढेर से पता चल जाती है। हैड साहब की योग्यता परखते हो आपकी योग्यता तो परखने की भी जरूरत नहीं ... आपकी योग्यता सामने लिखी दिवार पर पढ़ी जा सकती है।’’ मेरी यह बात सुनकर पवित्र को मिर्ची लग जाती है। गात्रे को बार-बार ठीक करते हुए मुँह से आग उगलने लगती है।
    तुम्हे तो ज्यादा हमदर्दी है...........। मेरा वश चले तो मैं इनको उठाकर स्कूल से बाहर फेंक दू । सभी नीच जात स्कूल पर कब्जा करके बैठी है।
    स्कूल ही क्यों, देश से बाहर निकाल सभी को। गुरू की प्रिय तेरा बस तो कभी नही चलना।’’ मेरे इस जवाब से ही तिलमिला उठती है।
    देखा जाए तो तेरे जैसी काली भेड़े ही हमारी कौम का कुछ बनने नही देती। इतिहास ग्वाह है, जब-जब सिक्ख कौम का राज गया, तो वह उसके अन्दर के गद्दारो के कारण ही गया था। तेरे अन्दर तो अपनी कौम का दर्द भी नहीं है पवित्र जब गुस्से से लाल होती तो अपने गात्रे को बड़ी तेजी से आग पीछे करने लगती थी। उसकी अपनी ‘‘कौम का दर्द’’ वाली बात पर मुझे हंसी आने लगी थी लेकिन मैंने अपनी हंसी रोक ली थी। हंसी कौम का ऐसा दर्द पवित्र जैसी कई दर्दमन्दो के अन्धर भरा पड़ा है। पहले हैड मास्टर जरनैल सिंह के अन्दर भी ‘‘कौम का ऐसा दर्द’’ भरा रहता था। वह मुझे अक्सर कहतातू हमारी अपनी लड़की है ..... यह देखकर तेरी ऐ.सी.आर, आउटस्टेडिंग लिखि है, सबसे बढ़िया। ये गुरदीस और प्रवीनबाला की भी देख ले, औसत भरी है। मेरे अन्दर तो कौम का दर्द है, इसलिए मैने तो पक्का नियम बनाया है कि अपने लोगों की तो गुप्त रिपोर्ट उत्तम ही लिखी है। कर्मचारी चाहे कितना भी निक्कमा क्यो न हो। ये नीची जाति के लोगो की तो औसत से ज्यादा नही भेजना। उस समय मुझे हैडमास्टर जरनैल सिंह की बातों पर अन्दर ही अन्दर हंसी आई थी। वैस भी ऐसे लोगो पर हंसा ही जा सकता हैं या फिर रहम किया जा सकता है। अन्दर से कितने खोखले है ये लोग। बिल्कुल हरजीत और उसके परिवार जैसे दिखावे के लिए कितने आडम्बर करते है। गुरूद्वारे की चैखट को घिसा देते है माथा रगड़-रगड़ कर। बाहर से तो धार्मिक पुरूष का ढ़ोग करते हैं और अन्दर से यह जातिवाद के जहर से भरे पड़े हैं। ये चाहे जितना भी दबाये, लेकिन इनका जहर दिमाग से बाहर आ ही जाता है।
         उस समय ओनम दो-एक महीने का था। उसके जन्म सम्बन्धी पार्टी भी की थी। शर्म के मारे हरजीत ने कुलवन्त और दीदी को भी बुला लिया था। हरजीत अपने मित्रो में ही व्यस्त रहा था। कुलवन्त जीजा चुपचाप अजनबीयो की तरह पास बैठे हुए थे। रात तो जैसे तैसे बीत गई थी। लेकिन सुर्योदय होते ही कुलवन्त ने मेरे से शिकायत की थी। ‘‘हरजीत तो अपने यारो-मित्रेां के साथ ही व्यस्त् रह सभी मिलकर रात भर शराब पीते रहे, मुझे तो उन्होने पूछा तक नहीं। मेरा तो परिचय तक नही करवाया। मैं क्या लेने आया हूँ यहाँ ? मुझे रात ही क्यो नही बताया? तुमने रात कैसे काट ली? मैं तेा इस घर में एक मिनिट भी नही रूकती।’’ दीदी क्रोधित स्वर में बोल रही थी। आए हुए मेहमान अभी घर में ही थे। दीदी का इस तरह से क्रोधित होना बुरा हो सकता था लेकिन मुझे बिल्कुल भी बुरा नही लगा। एक पल में ही दीदी समान समेटकर चले गए। मैने भी उनको रोका नहीं था। मुझे एक सुखमय सन्तुष्टि का अहसास हुआ था जैसे दीदी ने हरजीत के पुरे परिवार के मुँह पर करारा तमाचा जड़ दिया हो।
       मैं तो अक्सर चाहती हूँ की ऐसे लोगो के मुँह पर ऐसे ही तमाचे पड़ते रहे। मुझे उस समय दुख होता जब हैड साहब मेरे प्रति भी वैसा ही व्यवहार करते जैसा ढण्ढ पवित्र और गुरूसीमरत अध्यापकों के साथ। दरअसल लगातार होते इस जातिवाद ने उनके दोस्त और दुश्मन की पहचान को खत्म कर दिया है। मैने उनके इस व्यवहार पर ऐतराज अन्दर भी किया था, मेरे साथ आपका ऐसा व्यवहार मुझे दुखी करता है। प्लीज बेहवे सेन्सएबली लाइक युअर फेमली मेम्बर।’’
       हैड साहब कितनी देर सोचने के बाद बोले थे, जातिवाद तुम जैसे लोगो की मानसिकता के अन्दर तक बैठ गया है। तुम लोग चाहते हुए भी बर्दाष्त नहीं कर सकते, मेरे जैसों को, मै आपको इंसान नहीं, एक अछूत ही नजर आता हूँ ।मेरे अन्दर मेरी आपको अफसरी नही मेरी जाति नजर आती है।’’ हैड साहब की इस बात में बहुत बड़ी सच्चाई है जातिवाद से भरे हुए अध्यापक उसका हुकम नहीं मानते। अफरा-तफरी मचाते है स्कूल में। इस तरह के लोग स्कूल में नहीं पूर समाज में अफरा-तफरी मचाते है। तो ढण्ड जैसे लोगो की हरकत सहनयोग नहीं होती, लेकिन कोई बोलता ही नहीं। मण्डी की गलत हरकतो के बावजूद भी हैड साहिब चुप रहते है। हैडसाहब की क्यों, निर्मल, गुरदीष, प्रवीन बाला, मास्टर दयाल सिंह, गुरनेक जैसे लोग भी ऐसी बातो को नजर अंदाज करके चुपचाप बैठे रहते है।
    पर मेरे लिए तो ये बाते असहाय है। मुझे भी दीदी परम द्वारा रामदासीयों के लड़के से विवाह करने की बात बार-बार सुनाई जाती है। उस समय मुझे काफी कष्ट होता है। सोचती हूँ, जो लोग सदियो से ऐसी बातें सुनते आ रहे है, वे कितना दुख सहते होगें। जब घर में ऐसी बात होती है, तो मन करता है ऊँची चीख मारू चीख इतनी जोर से हो कि घर की छत उखड़ जाय। दिवारे टूटकर गिर जाए और मैं इस घर की उॅंची कैद से मुक्त होकर उस खुले आसमान में सांस लू सकू।
        काफी देर तक तो चुप रहती हूँ लेकिन जब ये परिवार ज्यादा ही सिर चढ़कर बोलने लगता है तो उस समय में चीख मारने की आवश्कता पड़ ही जाती है। उस समय हरजीत का परिवार छुई-मुई हो जाता है। चीख तो मैंने बचपन में ही सुनी थी। उस समय मैं माँ के साथ रोजाना गुरूद्वारा साहिब सेवा करने जाती थी। मजहबी सिक्खों के मोहल्ले से अमृतधारी महेन्द्रो भी गुरूद्वारे में सवो करने आती थी। महेन्द्रो को लंगर हाल में देखकर माँ सहित कई औरते नाक और भौहे फैलाती थी। उसको किसी न किसी बहाने से सफाई करने या आग जलाने के लिए ही लगाए रखती थी। यदि महेन्द्रो आटा गुन्थने के लिए परात उठाती तो उससे परात पकड़ लेती। महेन्द्रो कितनी ही देर इस वृतान्त को अन्दर ही अन्दर सहन करती रही। एक दिन जब माँ ने उसके हाथ से परात पकड़ी, तो वह क्रोधित हो गई।
    शेरनी की तरह बडी सिक्खनियों कुछ तो शर्म करो .......... गुरू महाराज से कुछ भय खाओ। तुम तो गुरूद्वारों में आकर भी ऊच नीच का भेदभाव नहीं छोडती। अन्दर से मैल जाती ही नहीं। संभालो अपने महाराज को ..............आराम से बैठो मैं नही आती गुरूद्वारे। मैने क्या लेना है आपके महाराज से।’’ उस समय महेन्द्रो की इस क्रोध भरी आवाज से माँ और अन्य सभी एक तरह शान्त चित हो गयी थी। आवाज सुनकर, बहुत से लोग जो सेवा कर रहे थे लंगर हाल में आ गए थे। जब बात का पता चला तो बहुत से बुजुर्ग और अनुभवी लोगों ने माँ को ही गलत ठहराया। माँ को इन लोगो से पीछा छुड़ाना ही मुश्किल हो गया था।
       अब मैं देखती हूँ कि पवित्र, ढण्ढ मण्डली के बार-बार जलील करने के पश्चात् भी हैड साहिब चुप रहते है। मैं हैरान हेाती हूँ, कैसे बर्दाशत कर लेते है। ये लोग चीख क्यों नही मारते ? मैं सोचती हूँ, अगर हैड साहिब, निर्मल, गुरदीष, प्रवीन बाला, दयाल और मास्टर गुरनेक जैसे लोग हिम्मत दिखाए तो माँ की तरह ढण्ढ पवित्र मण्डलो को भी पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाए। मेरी समझ से यह बात बाहर है कि ये लोग इस चीख को अपने कंठ में ही दबाकर क्यों रह जाते है ?   
                                                                               अनुवादक: सुरजीत सिंह वरवाल
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                          डॉ हरी सिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर, मध्यप्रदेश
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