Saturday 4 January 2014

कुरूक्षेत्र
गुरमीत कड़ियावली

मुझे समझ नहीं आता मैं क्या करूं ?

हर समय डर सा क्यो लगता हैं। किसी आन्तरिक अदृश्य भय से कापती रहती हूँ। औरतों को अपने मायके से सारी उम्र आत्मीयता रहती हैं, मुझे भी रहती थी। एक सप्ताह नहीं बीतने देती और मायेके जाने के लिए हठ करती रहती। कई बार रूठने का नाटक भी करती। अन्ततः मनीष को अकथ प्रयासो से जाने के लिए मना लेती थी। खुदा न करे बिजनेस के सिलसिले में अगर मनीष को समय नहीं होता, तो मैं ड्राइवर को लेकर खुद ही मायके चली जाती थी।
लेकिन अब.........
लेकिन अब तो मनीष मेरे मायके जाने का नाम भी ले, तो मुझे घबराहट सी होने लगती है। 7-8 वर्ष में इतना कुछ बदल गया, कि मायके जाने की मुझे खुशी रत्तीभर नहीं होती, कोई न कोई बहाना बनाकर इन्कार कर देती हूँ। मम्मी से मिलने को बिल्कुल दिल नहीं करता, लेकिन पापा को मैं, जरूर मिस करती रहती हूँ। पापा अकेले कैसे मिलेगे अगर पापा को मिलने जाऊगी तो.........................मम्मी भी होगी, यह सोचकर दिल बैठ जाता था और घबराहट सी होने लगती थी। ऐसा लगता था कि जैसे धड़कन रूक गई हैं।
मैं इन रिश्तों की बनावट में ही उलझी रहती हूँ।
माँ के साथ बने अपने रिश्ते को, मैं नया अर्थ देने लगती हूँ। इस नये रिश्ते की परिभाषा किसी शब्द कोष में नही मिलती। जब शब्दकोश लिखे गये थे, तब इन रिश्तों का कोई कन्सेप्ट नहीं था।
ये रिश्ते भी क्या चीज हैं ?
मनुष्य हर दिन नए रिश्ते बनाता है। मनुष्य के अन्दर यह प्रवृत्ति आदि काल से ही चली आ रही हैं। अगर यह प्रवृत्ति न होती.................................मनुष्य बच्चे पैदा न करता।
कौन चाहता हैं, कि मेरे बच्चे न हो........................ ।
बच्चों के फिर आगे बच्चे.....................
इसी तरह वंश चलता रहे............. पीढ़ी दर पीढ़ी।
मनीष भी तो यही चाहता हैं, कि अभी.................मेरे खून से भी कोई फल खिले जब यह सोचती हूँ, तो मनीष ठीक ही लगने लगता है।
कहाँ नही लेकर गया मुझे। महंगे डाँ के पास देशी, वैदों और हकीमों के पास। मन्दिर, गुरूद्धारों और जंगल पहाड़ियों में बैठे ज्योतिषों के पास....................वेष्णों देवी, गोपाल मोचन, रामतीर्थ कौन सी ऐसी जगह हैं, जहां नहीं ले गया घ्
उसकी सोच तो हर समय वारिश पैदा करने में लगी रहती हैं। शायद दुनिया के हर इन्सान को अपना वारिश चाहिए होता है।
अक्सर मैं यह सोचती हूँ कि केवल मर्द को ही वारिश की जरूरत होती है, औरत को नहीं.................. शायद नहीं। इसीलिए तो मैंने न तो कभी सुना और न कभी पढ़ा है, कि औलाद की खातिर किसी औरत ने दूसरी शादी की हो।
कितनी सहनशक्ति है इस औरत जात के अन्दर। शायद धरती माँ जितनी............।
धरती माँ के ऊपर यदि कोई मिट्टी का ढेर लगा देता हैं या कोई कुआँ खोद लेता हैं तो उसके मुंह से कभी आह भी नहीं निकलती।
आदमी तो भरा हुआ घड़ा है। जो जल्दी ही उछल जाता है। इसके अन्दर कोई सहनशक्ति नही हैं। मनीष के अन्दर सब्र कैसे होता ..।
शायद यह भी दुनिया के हर मर्द की तरह बेसब्र हैं।
मेरे से छोटी इन्दू पी.एम.टी. की कोचिंग लेने के लिए आई थी। इस शहर में एक से बढ़कर एक कोचिंग सेन्टर है। वह एक महीना मेरे पास रूकी। मेरे लिए वहीं एक महिना एक साल नहीं एक युग के समान बीता। मैने भगवान का नाम ले लेकर समय व्यतीत किया। मैं पछता रही थी कि इन्दु को कोचिंग लेने के लिए यहाँ क्यों बुलाया। क्या करती मैंने ही मम्मी डेडी को फोन किया था कि इन्दु को यहां भेज दे। यहाँ कि ब्रिलियेन्ट एकेडमी का अपना काफी नाम हैं। हर वर्ष उस एकेडमी के विद्यार्थी पी.एम.टी., आई.ए.एस. और पी.सी.एस. में चयनित होते हैं। पर मुझे लगता है, मैं जाल में खुद ही फस गई हूँ। मर्दों का क्या हैं। यह तो चिकने बर्तन के समान होते हैं। पता नहीं कब हाथ से फिसल जाए। जीजू....................जीजू..................करती, इन्दू मुझे जहर के समान लगती थी।
वह खिलखिलाकर मनीष के साथ हँसती तो मेरे हृदय में तीर के समान चुभ जाती। किसी भी बात को लेकर घर में हँसी मजाक चलता.................... तो मैं सिर्फ ऊपर-ऊपर से हँस देती। मैं अन्दर से बहुत डर गयी थी। मनीष भी इन्दू में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी दिखा रहा था। मनीष जो पहले देर रात काम से लौटकर नहीं आता, अब भी नहीं बजने देता था। कई-कई बार तो काम से छुट्टी भी मार लेता था। हर दिन घर में अच्छा-अच्छा फल, ड्राईफ्रूट और मिठाईयाँ आने लगी थी। मनीष का घर के प्रति बढ़ता प्रेम और नजदीकियां देखकर मैं अन्दर तक घबरा जाती थी। इन्दू की मौजूदगी घर में असहयोगी की तरह थी। टेस्ट खत्म होने के बाद इन्दू कुछ दिन और रहना चाहती थी, पर मैं तो अपने अन्र्तमन से यही चाहती थी............कि वह गाड़ी पकड़े और तुरन्त घर वापस चली जाये। मेरी हीन भावना ही मुझे खा रही थी, अगर मेरी जमीन के अन्दर बीज अंकुरित हो जाते तो शायद मैं इतना बहम न करती।
इन्दू के घर में रहने पर मुझे अजीब-अजीब और डरावने सपने आने लगे थे। मैं और मनीष पैदल जा रहे हैं..............दूर बहुत दूर................किसी घने जंगल में। अचानक आदिवासियों का झुण्ड मिलकर हमें घेर लेता हैं। मैं मनीष का हाथ कसकर पकड़ लेती हूँ। जंगली आदिवासी मनीष को मेरे से अलग करने लगते हैं। काफी जोर अजमाहिश के बाद, वह मनीष को मेरे से अलग कहीं दूर ले जाते हैं। मेरी अचानक चीख निकल जाती हैं। मैं हड़बड़ाहट करके जल्दी से उठ जाती हूँ, और मेरा शरीर पसीने से तर-वितर हो जाता है।
कभी सपना आता हैं...............मैं और मनीष पैदल जा रहे हैं। एक साधु हमें रास्ते में मिलता हैं वह साधु हमें उस दिशा की तरफ जाने को मना करता है। मनीष उसकी बात को अनसुनी करके मेरा हाथ पकड़कर उस दिशा की तरफ चलता रहता है। घाटियाँ और गुफओं में, किसी राजा के सिपाही हमें पकड़ लेते हैं। यह कोई राजा नहीं होता बल्कि एक जादूगर होता है। जादूगर मनीष को अपने जादू से तोता बनाकर पिंजरे में कैद कर देता है, इसी पिंजरे में पहले से अनेक आदमी तोते बने हुए कैद कर देता है। मैं चीखती चिल्लाती हुई पागल सी उस पिंजरे के आस-पास चक्कर लगाती रहती हूँ, और आखिर में हाफ कर गिर जाती हूँ। जादूगर की डरावनी हँसी वातावरण  को भंग करती है। मेरी अचानक चीख निकल जाती है। गहरी नींद में सोया मनीष हड़बड़ाहट से उठ जाता है। मेरे होठ शुष्क हो जाते हैं................... और गला सूख जाता है। मैं मुंह से कुछ बोल नहीं पाती।
पागलो की तरह मनीष की गोद में सिर रखकर रोने लगती हूँ। बस हर दूसरे चैथे दिन मेरे साथ ऐसे होने लगता हैं।
मनोविज्ञान के माहिर डॉ. कुन्तल कहते हैं कि मेरे अन्दर कोई अदृश्य भय घर कर गया हैं। मेरी तन्दुरूस्ती के लिए मेरे इस भय को दूर करना होगा। डाँ के अनुसार मैं अपने आप को घर में सुरक्षित महसूस नहीं करती हूँ। अदृश्य भय का कारण यही है। मुझे बाहर भेज कर डॉ कुन्तल और मनीष काफी समय तक बातचीत करते रहते हैं।
मनीष मुझे सुरक्षित करने के लिए अपनी बहुत सारी संपत्ति मेरे नाम करवा चुका है। अपने व्यापार की सारी कमाई भी मेरे हाथ पर लाकर रखता है। जैसे वह मेरे दिमाग के अन्दर यह बात बिठाना चाहता था, कि ये सब कुछ तुम्हारा ही है।
लेकिन मुझे तो लगता था कि धीरे-धीरे सब कुछ गुम हो रहा है।
अपने आन्तरिक भय के बारे में कुन्तल को क्या बताऊँ............... कि मम्मी और मनीष की बढ़ती नजदीकियां ही मेरे भय का कारण हैं।
मनीष जब मम्मी से मम्मी कहता है तो मम्मी शब्द उसके मुँह में ही दम तोड़ देता है। उसके चेहरे के हाव भाव बदल जाते हैं।
मुझे यह भी महसूस होने लगा जैसे मम्मी का मनीष के प्रति स्वभाव में भी काफी तब्दीली आ गई हो।
मम्मी भी जब मनीष को बुलाती हैं तो बेटाशब्द कहीं खो जाता है।
मैं कुछ और ही सोचने लग जाती हूँ। मुझे और मम्मी को पहली बार मिलने वाले अक्सर धोखा खा जाते हैं। हमें माँ बेटी की जगह बहने ही समझने लग जाते है। लोगो का यह समझना स्वाभाविक ही था..................क्योंकि हमारी आयु में.................१६- १७ साल का अन्तर था। मम्मी के बताने के अनुसार उसकी शादी १० वीं में पढ़ते ही हो गई थी, जहां वह मात्र १६ साल की थी। मनीष मेरे से साल बड़ा है।  इस प्रकार मम्मी और मनीष की आयु से सिर्फ १० साल का अन्तर हैं। वैसे भी मैंने कहीं पर पढ़ा था कि यदि एक दूसरे के प्रति पे्रम भाव हो तो आयु की कोई सीमा नहीं रहती। मुझे तो इस तरह लगता है कि जैसे १० वर्ष का अन्तर भी मम्मी और मनीष के नए रिश्ते ने खत्म कर दिया हो।
इस तरह से गैर कानूनी रिश्ते बनाने की बीमारी तो हमारे इस मध्यवर्गीय लोगो के अन्दर ही है। मम्मी जैसे लोग इस रिश्ते को सिवलाईज सोसाइटी का क्लाश कल्चर कहकर बड़ा गर्व महसूस करते हैं।
सिवलाईज सोसाइटी के मेम्बर होने के नाते मम्मी और मनीष अपने इस नए रिश्ते से काफी खुश हैं..................बेहद खुश हैं। मैं क्यूं उदास हूँ। मुझे इस नए रिश्ते से हिच किचाहट क्यों हो रही है, मैं ही क्यों अनसिबलाईज्ड हूँ। बार-बार मेरी अपनी क्लासमेट इन्द्रजीत, और उसके पति जमील आंखो के सामने आ जाते हैं। हमारी तरफ उनका भी कोई बच्चा नहीं हुआ। उन्होंने अनाथ आश्रम से कोई बच्चा गोद ले लिया था। कितने खुश और आनंदित हैं वे दोनों। जब भी उनको मिलती हूँ, तो मैं सोचती हूँ कि हम भी तो अनाथ आश्रम से बच्चा गोद ले सकते हैं। कानूनी तौर पर भी उस बच्चे को अपना नाम दे सकती हूँ। माँ के कालम में मेरा नाम ही तो भरा जाना था, और पिता के कालम में मनीष का। फिर मम्मी और मनीष को ऐसा करने की क्या जरूरत थी। संयोग से उस जिन दिन मम्मी साथ थी, जिस दिन डॉ. डेजी ने फाइनल चेकअप के बाद..........................‘‘नो हाप’’ कहते हुए निराशा के भाव से सिर हिला दिया था। अपनी दो ढ़ाई वर्ष लगातार कोशिश सफल न होने के कारण उसको काफी दुख हुआ था।
‘‘यू सुढ़ प्रेफर इन्वाइटोर फर्टेलाईजेशन................।’’ डॉ. डेजी ने मुझे और मनीष को ये बात  कहते हुए मम्मी की तरफ बड़े ध्यान से देखा था। सारे रास्ते में डाँ डेजी का मम्मी की तरफ इस भेदभरी नजरों से देखने का अर्थ तलाशती रही थी।
इस  तरह देखने का अर्थ जल्दी ही पता चल गया था। इस अर्थ को समझने के लिए मम्मी की सहेली डी.ए.वी गर्ल्स  कालेज की प्राचार्या विभा ने अपना योगदान दिया था। विभा बहुत बोल्ड लेडी हैं। किसी न किसी मामले को लेकर लेकर चर्चा में रहती है।
‘‘यू शूड यूज यूअर मदर’’ मैडम विभा ने मुझे बड़ी सहजता के साथ कहा था। मैं, मनीष और मम्मी रात के खाने के समय उधर गए थे। लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आया था।
‘‘यैस यूअर मदर केन डू इट..............स्टील शी इज यंग’’ विभा एक भेदभरी नजर मम्मी के पूरे शरीर पर डालती है। मनीष की नजरे मम्मी के शरीर पर और खास करके उसकी छाती पर घूमती देखकर मुझे काफी शर्म और गुस्सा आ रहा था। मुझे अभी भी मेडम विभा की बात समझ में नहीं आ रही थी, कि वह क्या कहना चाहती है..........................बस इतना ही समझी कि बात कुछ गंभीर हो रही है। हमार कुलीन वर्ग भी अजीब है, जो इस तरह की बातों करने के लिये अंगेजी का सहारा लेता है। शायद इस तरह की बाते मातृभाषा में हो ही नहीं सकती हों।
‘‘आंटी...............मैं विमल को खुद समझा दूंगा सारी बाते’’ मनीष ने प्राचार्य आंटी को ये बाते कही थी। मैं कितने ही दिन मैडम विभा की इन बातों के इधर उधर में अर्थ ढूढ़ती रही। उस दिन तक, मैं उलझन में रही जिस दिन तक मनीष ने मुझे इस बात का सही अर्थ नहीं समझा दिया।
‘‘.....................................विम। प्राचार्य आंटी के कहने के पश्चात् मैं और मम्मा ने, डाँ डेजी के साथ भी डिस्कस किया था। यू नो डाँ डेजी कभी गलत मार्गदर्शन नहीं करती उन्होंने मम्मी का चैकअप भी कर लिया है। ऐवरीथींक इज ओके दे केन सोल्व आॅवर प्रोबलम एज ए सेरोगेट मदर। हम अपने बच्चे के जन्म के लिए मम्मा की कोख इस्तेमाल कर सकते है। दे केन गीव अस बेबी।’’
रात के समय बल्ब की रोशनी में भी मनीष का चेहरा सफेद दिखाई दे रहा था। गहरी सर्दी में भी मनीष के चेहरे पर पसीने की बूंदे चमक रही थी।
‘‘...................इफ यू डोन्ट माइन्ड...........वी केन.................घ्श्
‘‘जब तुम्हे कोई ऐतराज नहीं.....................मम्मा को कोई ऐतराज नहीं................तो मेरे माईन्ड करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है घ् फिर आपने इरादा भी तो बना रखा है...................।’’ मैंने बहुत शान्त चित होकर उत्तर दिया.................पर अन्दर से शान्ति नहीं मिल रही थी।
फिर मनीष कितनी ही देर तक बताता रहा...................आर्टीफिशयल तरीके से किस तरह उसका वीर्य मम्मी की कोख में रखा जायेगा। मम्मी की कोख से पैदा होने वाला बच्चा उनका अपना खून होगा। इस बच्चे के साथ जो हमारी आत्मीयता बनेगी...............वो अनाथ आश्रम से गोद लिये बच्चे के साथ कैसे बन पायेगी ......अब जब मम्मी की कोख में मनीष का अपना खून पल रहा है......................तो मुझे ज्ञात होता है, मेरे पास से तो सारे रिश्ता गुम हो गये हैं।
मैं काफी उखड़ी-उखड़ी से रहने लगी हूँ। गुमसूम सी।
मनीष आजकल काफी खुशी महसूस करता है।
प्राचार्य मैडम भी आजकल फिर जोरदार चर्चा में हैं।  उसकी काले शीशों वाली पैजेरो गाडी की पिछली सीट के उपर उसके साथ, उससे 20 साल छोटा एक विघार्थी बैठता है।
प्राचार्य विभा मम्मी की तारीफ करते हैं, ‘‘आप बच्चों की खुशी के लिए इतना सेकरीफाईज कर रही है दिस इज दा ग्रेट कोन्ट्रीव्यूशन फोर ओवर सोसाइटी।’’
मैं इस मध्यम वर्ग के खोखलेपन पर सोचकर अन्दर ही अन्दर हस पड़ती हूँ। इस वर्ग में कुर्बानी के भी अपने ही मायने हैं। मेरा दिल करता हैं कि मैं प्राचार्य को कहूँ कि स्टुडेंट को गाड़ी में घुमाकर कुर्बानी तो आप भी बहुत बड़ी दे रही हो।
‘‘रीयली शी इज ग्रेट वुमेन। शी बीहेवज लाईफ ए फ्रेड............नाट लाइक ए मदर इनला’’ मनीष अक्सर मम्मी की तारीफ में इस तरह के वाक्य कहता रहता है। मुझे खीझ सी होने लगती है उसके इन शब्दों से, मनीष के चेहरे से प्यार की परत बनावटी सी लगती है जैसे वह नाटक कर रही हो।
मम्मा भी प्राचार्य विभा की अक्सर तारीफ करती रहती है। ‘‘.................ग्रेट लेडी...............सारे समाज को वह अपनी जूती की नोक पर रखती है................वह अपने ढंग से जिन्दगी जीती हैं अपना रास्ता आप चुनती हैं।’’
प्राचार्य विभा अपने नये दर्शन के बारे में अक्सर कहती हैं ‘‘युगो से आदमी औरत को यूज  करता आया है.............नाव वी आर यूजीज ए मैन’’ वह विवाह नाम संस्था का भी मजाक उडाती हैं। वह अक्सर कहती हैं ’’बच्चे की जरूरत महसूस हुई तो मैं वीर्य बैंक से वीर्य लेकर बच्चा पैदा करूंगी.............इस तरह शादी करके सारी उम्र गुलामी करने का क्या अर्थ हैं।’’
मैं अपनी हालत संबंधी अनुकरनिका को फोन करती हूँ ‘‘तुम अभी भी 18 वीं सदी में जी रही हो। दुनिया कहां की कहां चली गई है................घ्श् उसका यह जबाव सुनकर मैं पत्थर की मूर्ति सी बन जाती हूँ। यह वही अनुकरनिका कह रही हैं जो कालेज में स्टुडेंट लीडर होती थी, और औरत की आजादी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। यह वही अनुकरणीका है जो औरत की आजादी की बड़ी-बड़ी बाते करती थी।
मनीष हर समय घर में आने वाले नए मेहमान की बातें करता रहता है।
मुझे पल-पल अपनी मौजूदगी नष्ट होती नजर आ रही है।
मैं आने वाले बच्चे के साथ अपने रिश्ते को सोचती हूँ।
फिर मनीष और मम्मी के बने नए रिश्ते के बारे में सोचती हूँ।
फिर मम्मी और अपने नए रिश्ते के बारे में सोचती हूँ।
आजकल मुझे अजीब तरह के दौरे पड़ने लगे हैं। जीभ तलवे के साथ चिपक जाती हैं। आंखे बाहर निकल जाती हैं। कितने-कितने देर तक बेहोश रहती हूँ................ बेहोशी में बड़ बडाती रहती हूँ। सुनने वाले बताते हैं कि मैं कूरूक्षेत्र-कुरूक्षेत्र चिल्लाती हूँ। डॉ. कुन्तल ने मुझे डी.एम.सी. के माहिर मनोरेगी डॉ. को दिखाने के लिए कहा है।
मैं क्या हूँ...............कैसे समझाऊं सभी को................ कि मुझे किसी डॉ. को दिखाने की जरूरत नहीं हैं.................।

अनुवादक : सुरजीत सिंह वरवाल
विभाग  : हिंदी
डॉ हरीसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालयसागर मध्यप्रदेश
दूरभाष : +९१९४२४७६३५८५ / +९१९५३०००२२७४ 

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