Wednesday 29 October 2014

फ़र्क ( सुरजीत सिंह वरवाल )

फ़र्क
                                                सुरजीत सिंह वरवाल
जानवर, प्राय: ये शब्द बहुत जाना पहचाना और विख्यात है. ये शब्द जितना सरल, स्पष्ट और निर्मल है उतना ही रहस्यमय, क्योंकि जो चीज जितनी सरल और स्पष्ट होती हैं उसे समझना भी उतना ही कठिन होता हैं. जानवर, मनुष्य की उत्पति के समय से ही उसका साथी रहा है. इसके पीछे कई किवदंतीया भी बनी है जैसे आज जो हम भोजन या अन्न खा रहे है वो असल में भगवान ने जानवर( कुत्तो) को दिया था. मनुष्य के आग्रह करने पर कुतो ने वो अन्न आदमी को दिया तथा वचन लिया की हम मिल बाँट कर खायेगे और आप को भी भर पेट खिलायेगे आदि आदि.....कारण जो भी रहा हो लेकिन आज मनुष्य धीरे-धीरे अपने कर्तव्यों से विमुख होता जा रहा है.
      ग्रामीण परिवेश में तो पाले जाने वाले जानवरों की संख्या, उस घर के मनुष्य सदस्यों से भी अधिक होती है. वहा उनका रख रखाव, लालन-पालन उसी आत्मीयता और देख-रेख से होता है, जैसे कि लालन-पालन उस घर के मनुष्यों का होता है. जानवर और मनुष्य दोनों ही एक दूसरे के प्रति वफादार होते है, एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करते है. वहां जानवर मनुष्यों पर बोझ नहीं होता. परन्तु शहरों में प्रायः जानवरों का पालन आत्मीयता से नहीं बल्कि स्वार्थ और अपने वैभव को दिखाने के लिए अधिक किया जाता है. उन्हें जानवरों से अपने बच्चों से आत्मीयता बहुत कम होती है. आज प्रतिस्पर्धा की दौड़ ने मनुष्य को इतना स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया हैं की उसे अपने खून के रिश्ते भी नज़र नहीं आते. शहरों में बहुत कम ऐसे खुशनसीब जानवर होंगे, जिन्हें अपने मालिक से सच्ची आत्मीयता, लगाव और अपनापन नसीब होता हैं.
      ‘दादी’ काम में ही दिन रात लगी रहती थी. ग्रामीण परिवेश में, संस्कृति में अपना सम्पूर्ण जीवन बिताया. दादी को सभी की चिंता रहती थी, यू कहे कि सभी को साथ लेकर चलने वाली थी तो  कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. बच्चे शहरी परिवेश में पले और बड़े हुए थे. दादी का सभी सम्मान और आज्ञा का पालन करते थे. दादी पारिवारिक समृद्धि और पोता-पोतियों से अलंकृत थी. समृद्धि और वैभव ये दो शब्द ऐसे है जो मनुष्य को अस्तित्वहीन बनाते है. दादी ग्रामीण और पुराने ख्यालो की थी इसलिए ये विकार उन पर अपनी छाप नहीं छोड़ सके. लेकिन दादी के ये यूवा पीड़ी के नए विचारों की श्रंखला के बच्चे इन सब से कैसे बच सकते थे. अत: उन्हें भी कई प्रकार के नए-नए शौंक  लगने लगे . ऐसा ही शौंक जो उन्हें लगा, वह था जानवर पालने का.
      दादी के बच्चों ने भी अपना शौंक पूरा किया. एक दिन बाजार से, विदेशी नस्ल की सुन्दर लाल सफेद कुतिया खरीद कर घर ले आए. उसके आने से घर के सदस्यों में बढ़ोतरी हो गयी. बच्चों को जैसे एक नया साथी मिल गया. वह अवस्था में अभी छोटी थी. अत: बच्चे आसानी से उससे घुल-मिल गए. वह भी बच्चों को आसानी से पहचानने लगी थी. उसके कोमल बालो वाले शरीर पर बच्चे प्यार से हाथ फेरकर जब खुश होते तो वह भी पूछं हिलाकर और कूं-कूं करके उनकी ख़ुशी में शामिल हो जाती. जब बच्चे अपनी खाने की चीजें बड़ो से चुराकर उसे चोरी से खिलाते, तो वह भी इस प्यार के बदले उन्हें चूम-चूम कर और चाट-चाटकर अपना प्यार उन पर लुटाती.
      शहरों में घर प्रायः बहुत छोटे होते है, जो बड़े होते है उनको कोठी का रूप दे दिया जाता है. ये मकानों की भी अजब कहानी है, अधिकांश व्यक्ति अपने स्टैंडर्ड को मेंटेन करने के लिए अपने मकानों को शाही बनाने में लगे रहते है. शहरी घरों में प्रायः आँगन नहीं होते और अगर होते भी हैं  तो बहुत छोटे. दादी के घर में खुशकिस्मती से आँगन था. लेकिन इतने बड़े परिवार में आँगन, सबके निर्वाह के लिए कम पड़ जाता था. फिर भी यह उस परिवार वालों की दरियादिली थी, की उन्होंने आँगन के मुख्य द्वार के एक कोने में, उसके रहने-सोने के लिए एक छोटे से घर का प्रबंध कर दिया था.
      मोर्निंग वाक के लिए जब दादी के बच्चे जाते तो ‘शायना’ के गले में पट्टा बांधकर उसे भी अपने साथ ले जाते.  जब भी कोई पुराना परिचित व्यक्ति ‘‘शायना’ को पहली बार देखकर पूछता, तब बच्चे छाती चोड़ी करके गर्व के साथ ‘शायना’ की विदेशी नस्ल, उसकी कीमत और उसके लालन-पालन व रख-रखाव पर होने वाले खर्च का बखान करते. शायद ऐसा करने से उन्हें ‘शायना’ के साथ अपनी आत्मीयता का आभास होता हो. लेकिन सुनने वालों को तो यह उनके वैभव और समृद्धि प्रचार का माध्यम अधिक लगता था.
      समय बीतता गया और वक्त की सुई धीरे-धीरे घुमती रही. वक्त के साथ- साथ बच्चे और  ‘शायना’ भी बड़ी हुई. परन्तु बच्चे और ‘शायना’ की बढ़त अनुपात में काफ़ी अंतर था. यह अंतर प्राकृतिक था. जहाँ बच्चे थोड़े ही बड़े हुए थे वही ‘शायना’ जवान हो गयी थी. ये सृष्टी का नियम हैं की कोमलता और मुलायमपन बाल्य अवस्था में ही रहता है. जैसे-जैसे उम्र में बढ़ोतरी होती जाती है उतनी ही आत्मकेन्द्रीयता तथा स्वार्थ भरने लगता है. चूँकि ‘शायना’ जवान हो गयी थी अब वह उतनी कोमल और मुलायम नहीं थी. बच्चे अब उससे पहले जैसा रोमांच  और जुड़ाव नहीं करते थे. बच्चों के मन में ‘शायना’ के प्रति अब पहले जैसी दिलचस्पी नहीं रह गयी थी. इसके विपरीत ‘शायना’ का लगाव बच्चों के प्रति रतिभर भी कम नहीं हुआ था. बल्कि और ज्यादा बढ़ गया था. बच्चो को देखते ही वह पहले से भी ज्यादा तेजी से पूछ हिल्लाती, कूं-कूं करती हुई दौड़कर उन्हें चाटने लगती. बच्चे उसकी पूछ हिलाने या चाटने में पहले जैसा प्यार अनुभव न कर पाते. वह उसे हाथ से झिड़कते हुए कहते जा-जा ‘शायना’...जा काम करने दे परेशान मत कर. जानवर प्रेम का भूखा  होता है उसे किसी प्रकार का लालच नहीं होता और न ही कोई स्वार्थ. शायद ये बात आज तक मनुष्य जाति नहीं समझ पाई . अब पूरे घर के सदस्यों को ‘शायना’ में से अन्य जानवरों की तरह आने वाली गंध महसूस होने लगी थी. ‘शायना’ अब बड़ी हो गई थी इसलिए अब लार भी ज्यादा टपकती थी, जो घर वालों को बिल्कुल भी पसंद नहीं थी. पर वह बेजुबान जानवर घरवालों की इस नापसंदगी को समझ नहीं पा रही थी. इसलिए वह भी लार टपकाने में कोई कौटोती नहीं करती थी. अगर जानवरों में जुबान होती तो निश्चित ही संघर्ष छिड़ जाता. सृष्टी का नियम है की जब तक हम दूसरे को परेशान या उसके क्षेत्र में प्रवेश नहीं करेंगे तो सामने वाला हमे कुछ नहीं कहेगा लेकिन अगर हम किसी को कष्ट देंगे तो हमे मुहँ की खानी पड़ेगी.
       समय एक सा नहीं रहता शायद 'शायना’ के भाग्य में भी दुर्दिन लिखे थे. एक दिन बच्चों ने पुरी के साथ बासी रोटी और बासी सब्जी खिला दी. 'शायना’ ने बड़े प्यार से खाई. रात में जब सभी सो गए तो 'शायना’ ने तेज़-तेज़ कुकियाना शुरू कर दिया. नींद टूटी, घर वाले शोर सुनकर एक दम दौड़े. आँगन में रोशनी की. पता चला, कि 'शायना’ के पेट में दर्द होने की वजह से चिल्ला रही थी. शायद उसे बदहज़मी हो गयी थी. जिसका प्रमाण वह घर में दो- तीन जगह उल्टी और दस्त करके दे चुकी थी. घर की ग्रहणीयों ने नाक मुहँ सिंकोड़े. उसके दस्त ठीक होने तक घर के बाहर बाँध दिया गया. कितनी बड़ी ट्रेजड़ी है कि मनुष्य जाति जो भी प्यार करती हैं उसमे स्वार्थ छिपा होता है, लेकिन जानवर जो प्यार करता है उसमे निस्वार्थता रहती है. घर में कोई बच्चा बीमार हो जाता है या कोई सदस्य बीमार हो जाता है तो हम रात दिन एक कर देते है और तब तक चैन नहीं मिलता जब तक वो ठीक ना हो जाये. लेकिन प्रेम को महसूस करने की क्षमता जानवरों में मनुष्य से ज्यादा होती है. 'शायना’ की यह क्षमता काम कर रही थी. बहरी और आन्तरिक परिवर्तन उसे साफ महसूस हो रहा था. हालांकि खाना टाईम पर मिलता था. लेकिन दवा दारू ना हो पाने के कारण काफ़ी दुबली हो गयी थी. अब उसे सुबह की भोर से साक्षत्कार भी नहीं करवाया जा रहा था. लगभग उस पर ध्यान देना बंद कर दिया गया. अब धीरे- धीरे उसमें से आने वाली गंध दिक्ते पैदा कर रही थी. घरवाले उससे घृणा करने लगे. अगर 'शायना’ का मन कुछ पल के लिए उनके पास जाने को होता तो आगे से फटकार पड़ती. उसे अपने जीवन का यह परिवर्तन विसिम्त किये था. इसी बीच उसके भाग्य ने फिर करवट बदली, और मुसीबतों का पहाड़ उसके सिर आ धमका. एक ऐसी, दुर्भाग्यपूर्ण घटना उसके साथ घटी, कि जिसने उसका जीवन तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वह गर्भवती हो गई. घरवालों को जब यह पता चला तो वे नाना प्रकार की भविष्यगत कल्पनाएँ करने लगे. जो 'शायना’ के लिए तकलीफ़देह हो सकती थी. ग्रहणियों ने तर्क दिया की ये अगर घर में ब्या गई, तो चारों तरफ ये और इसके बच्चे गंदगी फैलायंगे.  जो  'शायना’ कभी उनके वैभव और प्रतिष्ठा में चार चाँद लगाती थी वही आज उनकों सबसे बड़ी मुसीबत नज़र आने लगी थी. तर्क आने लगे जहाँ-तहां हग मूत दिया करेंगी. आने जाने वालों पर अन्यास भौंका  करेगी. रात दिन शोर मचा कर नींद हराम कर देगी. सर्वसम्मिति से 'शायना’ को घर से बाहर निकाल कर छोड़ देने का प्रस्ताव पास हुआ. 'शायना’ को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. यही फ़र्क हैं कि  मनुष्य अपने स्वार्थो में इतना अँधा हो जाता है की किसी के अरमानों का खून करके भी उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. परन्तु 'शायना’ ने घर छोड़ना स्वीकार नहीं किया. जहाँ मनुष्य का प्रेम क्षणिक, दिलबहलाव, स्वार्थ और दिखावे के लिए होता है, वहीँ पशु का प्रेम निश्छल, निस्वार्थ,स्थाई, सहज  और सरल होता है. निश्चित रूप से इसका कारण वह इंसानी दिमाग ही होता है. जो पशुओं में नहीं होता. ये वही है जिसके होने से एक इन्सान- इन्सान, और जिसके न होने से पशु- पशु बनता है. इसी के बलबूते पर मनुष्य अपने सारे स्वार्थ साधते हुए झूठ और आडम्बरों का पुलिंदा खड़ा करता है. दूसरी और पशु जिसके न होने से जीवनपर्यंत सच्चा और स्वार्थहीन बना रहता है.
      'शायना’ पहले की भांति ही घर के बाहर पड़ी रही. घर का बचा- खुचा, जूठा खाना मिल ही जाता था. अगर फिर भी कोई कसर रह जाती तो आस पड़ोस में मुहँ मार कर पूरी कर लेती थी. इसी तरह गर्भवस्था के दिन बीतने लगे, और वह भी दिन आ गया जब वह माँ बनी.  'शायना’ ने उसी दरवाजे पर तीन सुकमलो को जन्म दिया. पड़ोस के लोंगो और दादी को उसकी इस अवस्था पर दया आ गयी. उन्होंने 'शायना’ के खाने का अच्छा इंतजाम कर दिया. परन्तु जिस चीज की जरूरत 'शायना’ को इस अवस्था में खाने से भी ज्यादा थी, उस पर किसी का ध्यान नहीं गया. वह थी सुरक्षा.  प्रायः देसी और आवारा जानवरों को गलियों में जीवन यापन करने की आदत होती है. फिर भी वह इस अवस्था में सहज नहीं हो पाते. उनकी प्रवृति आक्रमक हो जाती है. फिर 'शायना’ तो विदेशी नस्ल की पालतू थी.  वह अपनी तरफ से सब कुछ ठीक रखने की पूरी कोशिश कर रही थी. जानवरों का स्वभाव मनुष्य से विभिन्न होता है.  जहाँ मनुष्य दूसरो को अपने मज़े और मनोरंजन के लिए भी तकलीफ पहुंचाता रहता है, वही जानवर सिर्फ तब ही किसी पर हमला करता है जब उसे उससे असुरक्षा का भय होता हैं. 'शायना’ को अभी तक किसी से असुरक्षा महसूस नहीं हो रही थी.इसलिए वह शांत थी. धीरे- धीरे सारे लोग 'शायना’ को अकेला छोड़ अपने- अपने काम धंधो में लग गए. लेकिन 'शायना’ ज्यादा देर तक अकेली नहीं रह पायी. बड़ों के जाते ही धीरे- धीरे बच्चों की सेना ने घेर लिया. इस सेना में पांच-छ: साल से लेकर पद्रह- सोलह साल के बच्चे थे. शुरू में 'शायना’ शांत रही. लेकिन जैसे- जैसे इन बच्चों का हो- हल्ला और छेड़खानी बढ़ती गयी, वैसे- वैसे उसे बच्चों की असुरक्षा महसूस होने लगी. लिहाजा उसने बिना काटे भोंकना शुरू कर दिया. लेकिन बच्चों की गतिविधियों में कोई अंतर नहीं आया. बल्कि बच्चें उसे चिड़ाते हुए 'शायना’ के बच्चों से और ज्यादा छेड़खानी करने लगे. यह देख 'शायना’ के अन्दर गुस्सा भरता जा रहा था. इसी बीच एक चौदह साल का बच्चा दिलेरी दिखाते हुए 'शायना’ के बच्चे को उठाने आया. बस फिर क्या था. 'शायना’ ने उसके बाजु को नोच लिया. यह बात जंगल में आग की तरह पुरे मोहल्ले में फ़ैल गयी. देखते ही देखते उस लड़के के शुभचिंतक हाथों में डंडे, लाठी ले कर 'शायना’ से बदला लेने आ धमके. उन्हें दूर से ही आता देख 'शायना’ आत्म सुरक्षा के लिए सरपट भागी. 'शायना’ आगे थी और शुभचिंतक लोंगो का दल उसके पीछे. 'शायना’ भागने में चतुर थी वह भाग कर पास के जंगल में जा छुपी. लेकिन लोगों ने कसम खाई थी कि 'शायना’ को इस मोहल्ले में घुसने नहीं देंगे. गलती से अगर घुस भी गयी तो उसके खून से तिलक करके ही दम लेंगे. जानवर स्वभाव से सरल और भोला होता हैं. 'शायना’ को भी पूरी दुनीया अपनी जैसी ही देखती थी. उसने सोचा जब सभी थोड़ी देर में चले जायेगे, तो वह भी अपने बच्चों के पास चली जाएगी. शायद वो इन्सान के इंतकाम से वाकिफ़ नहीं थी. कुछ समय पश्चात जब वो दोबारा मोहल्ले में घुसी, तो घात में बेठे इंतकामियों ने उसे फिर से खदेड़ दिया. इस तरह दिन में कोई पांच- छ: बार ऐसी झड़प हुई. 'शायना’ बच्चों तक पहुँचनें में सफल न हो सकी. दिन भर की भूख और तपते सूरज की गर्मी के कारण 'शायना’ के दो बच्चों ने दम तोड़ दिया. किसी इन्सान ने 'शायना’ के बच्चों की परवाह नहीं की. बस बदला- बदला- बदला छाया हुआ था. जब समय ज्यादा हो गया तो 'शायना’ अपने आप को न रोंक सकी. माँ थी न. बच्चों की भूख जानती थी. जान हथेली पर लेकर, इस बार मिलने का पक्का इरादा लेकर आई थी. चाहे कुछ भी हो जाये अपने बच्चों से जरुर मिलेगी. भाग्यवश तेज़ी से आँख बचाकर अपने बच्चों तक पहुंची. देखा दो मर चूके थे. जानवर तो थी क्या हुआ ? दिल तो उसके पास भी था, वो भी एक माँ का दिल. इन्सान होती तो शोक को दिल में दफ़न करने की कला जानती होती. लेकिन उसकी पशुवृति ने गला फाड़ कर रोने को मजबूर कर दिया. उसके रोने की देर थी, इंतकाम लेने वाले जान गए की दुश्मन इलाके में आ गया हैं. तुरंत डंडे लेकर दोड़े. 'शायना’ ने भीगी आँखों से एक दृष्टी बच्चों पर डाली. अपने विनाशकों को नजदीक आता देख, अंतिम जीवित बचे बच्चे को मुहँ में दबाया और दोड़ लगाई. पूरे दिन की थकी, भूखी और ऊपर से प्रसव की कमजोरी. 'शायना’ तेज़ न भाग सकी. अपने दुखों के पहाड़ को दिल में दबाये जब 'शायना’ भाग रही थी तब एक इन्तकामी का डंडा कमर पर पड़ा. मुहँ से कूं निकल गई, वार हल्का ही था परन्तु इस अवस्था में 'शायना’ पर भारी पड़ा. बच्चा छुट कर जमीन पर जा गिरा. मर चूके बच्चों में यह तीसरा जिन्दा जरुर था. लेकिन हालत इसकी भी दयनीय थी. मुहँ से छुटकर जैसे ही जमीन पर गिरा वह भी मर गया. 'शायना’ के पास शोक करने का समय नहीं था क्योंकि इंतकामी नजदीक आ चूके थे. इस सृष्टी में ओलाद सबको जान से भी ज्यादा प्यारी होती हैं. उसकी मोत पर बौखलाहट स्वभाविक है. 'शायना’ भी बौखला गई. करीब तीन-चार व्यक्तियों को काट कर जंगल में भग गई.
      जैसे ही काली रात ने अपना समय छोड़ा और भोर ने दर्शन दिये तो एक कुतिया के पागल होने की खबर फ़ैल गई. जिसकी सुन्दर उपमा दी गई की उसने अपने बच्चों को ही खा लिया, करीब पन्द्रह व्यक्तियों को भी काट लिया. अब क्या था पूरा मोहल्ला हर कीमत पर उस कुतिया को ढूंड कर मारने के लिए चल दिया. शायद पूरे मोहल्ले को उस कुतिया से अपने बच्चों की असुरक्षा का डर  सता रहा था. ठीक वैसा ही जैसे एक दिन पहले 'शायना’ को इंसानों के उन्ही बच्चों से था. आदमियों ने अलग- अलग टोलियों में उसकी खोज शुरू कर दी. शाम होते होते उनकी खोज खत्म हुई. लगभग  दस आदमियों का दल उसे जंगल से खदेड़कर बस्ती की ओर ले आ रहा था.बस्ती में पहले से तैनात दूसरे दल के सेनाकर्मी ने अपना मोर्चा सम्भाला. चारों तरफ से 'शायना’ को घेर लेने के बाद, शराब के नशे में धुत, एक सभ्य, इज्जतदार और भलेमानस लाठीबाज ने घुमाकर लाठी का एक वार 'शायना’ की गर्दन पर किया. एक लम्बी चीख के बाद 'शायना’ वही ढेर हो गयी. लोग उस वीर लठैती की वाहवही करने लगे. उसने भी मुछो पर ताव दिया जैसे उसने बहुत वीरों वाला काम किया हो. सभी जश्न और ख़ुशी में डूबे हुए थे, तभी एक चमत्कार हुआ. 'शायना’ अचानक उठी और धीरे- धीरे कुकियाती हुई तेजी से भागी. देखते ही देखते लोंगो की रंग में भंग पड़ गई. बच्चे बड़े और जवान सब स्तब्ध और आश्चर्यचकित से उसे भागता देख रहे थे. कुछ के मन में तो यह आश्चर्य भी था कि क्या ये वाकई एक कुतिया थी, या कि कोई और ?. क्या उसमे कोई चमत्कारी शक्ति आ गई थी ?. इस तरह के सारे प्रश्न और आश्चर्य उनकी अपनी मानसिक क्षमता में उपजे थे. फिर एक ना भूलने वाला चमत्कार हुआ, देखते ही देखते जोरो से हवा चलने लगी. चारों तरफ हाहाकार मच गया. देखते ही देखते प्रकृति ने अपना रूप दिखा दिया. अचानक धरती धसने लगी, शाही मकानों की छत उड़ने लगी. सब हक्के- बक्के होकर एक दूसरे को देखने लगे. पल भर में ही सब कुछ धरती में धस गया. सब चीख- चिल्लाहट समाप्त हो गयी. चारों तरफ धुआ और मिट्टी उड़ रही थी. एक भी मनुष्य जाति का अंश नहीं बचा था. वह अपने मनुष्यत्व की ताकत के आगे, कुदरत के न्याय को भूल गए थे. ये सबक आज कुदरत ने उन्हें उस 'शायना’ कुतिया के माध्यम से दिया था, कि ये दुनिया सिर्फ मनुष्यों के लिए नहीं बनी है. इस पर दूसरे प्राणियों और जीव जंतुओं का भी उतना ही हक़ है, जितना कि मनुष्य का. जिस तरह मनुष्य को जीने के लिए प्यार, सुरक्षा,और अपनापन चाहिए, उसी तरह बेजुबान जानवरों को भी. लेकिन कुदरत हर जगह 'शायना’ को भेजकर यह सबक सब को नहीं सिखा सकता. बल्कि यह सबक तो उन्हें खुद सीखना होगा. इतनी तरक्की के बाद भी इन्सान यह सबक आज तक नहीं सीख पाया. जबकि जानवर रहते हुए भी, जानवरों ने यह सबक पहले सीख लिया. देखते है, इन्सान कब तक यह सबक सीखता हैं और प्रकृति कब तक अपना प्रकोप दिखाती हैं. लेकिन ये तो निश्चित हैं कि इस बार अगर मनुष्य जाति अपनी अति से बाहर गयी तो सृष्टी अंधकारमय होगी.



                                                                              सुरजीत सिंह वरवाल
                                                                    जूनियर रिसर्च फेलो
                                                                    विभाग- हिंदी
                                                                  डॉ हरी सिंह गौर केंद्रीय विश्विद्यालय, सागर,
                                                                    मध्य प्रदेश, भारत
                                                                                                      ई -  singh.surjeet886@gmail.com

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